मेरी चंद लम्हों की खता थी ,
उन्हें बरसों तक का गिला रहा ,
मोहब्बत ही लुटाई हरदम हमने,
पर मिली बस नफरत, ये मेरी नेकियों का सिला रहा,
गैरों से भी पेश आया अपनो की तरह, ताउम्र ,
पर हर अपना मुझसे अजनबियो से रहा,
जमाने के वास्ते मेरे लबों पर बहारे थी हरदम,
पर उनके चेहरों पर सदा गुल ऐ नाराजगी खिला रहा,
मेने तो लगाया हर किसी को दिल से अपने ,
गम ये के, बस जारी बेरुखी का सिलसिला रहा,
अब नहीं होते यूँ उदास "शज़र"
सोचो सोहबत में चाँद आया , जो खुर्शीद ऐ राबता ढला रहा.