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04 January, 2012

एक गलती की ... ..

जहाँ  से गुजरे , भले ही गुलाब न खिला सके .
पर कुछ खार जरुर कम करते गये,

लाख नेकियाँ कर अजनबी थे ,
जमाने में,

एक गलती की ...

फिर अपनी बदनामी के चर्चे ,
ज़माने वाले करते गए .......

जिंदा हूँ मैं .....

ऐ ज़माने,
ना दे गम मुझको इतना,
के गम की बस्ती का ही बाशिंदा हूँ मैं,,

ना बिछा  खार राहो पर,
 उड़ना आता है मुझको,
के आसमान से टूट कर गिरा  परिंदा हूँ मैं,,

सोच कर सितम करना ज़माने वालो मुझपे,
के तेरे ही बादशाह का बन्दा हु मैं,,

मेरी तन्हाई और ख़ामोशी पर,
खुश मत हो ज़माने, मरा नहीं, 
के अभी  जिंदा हूँ  मैं 

मेरी बज़्म याद आएगी.......

मेरे रुखसत होते ही,
ज़माने को मेरी कमी महसूस हो जाएगी ,

यादे जब भी करेगी परेशान,
आँखों को दीदा ऐ तार कर जाएगी,

जब चाहोगे के, कोई मनाये,
अपने रूठने की , वो अदा तडपायेगी,

शब् ऐ फुरक़त में जब जलोगे तन्हा,
मेरी बज़्म याद आएगी..

खारों की नोंक से मलहम लगते है ..

ये अहबाब भी,
क्या खूब दोस्ती निभाते है,

गुलशन के ख्वाब दिखा,
ज़िन्दगी को वीरान कर  जाते है,

ज़ख्म देकर नहीं मिलता सुकून जब,
तो  खारों की नोंक से मलहम लगाते  है ..

अपनों के ही सताए हुए है,

क्या करे गेरों से गिला ,
हम तो अपनों के ही सताए हुए है,


क्या करे उम्मीद,
 अब साहिल पर आने की, जब अपनों के ही डुबाये हुए है,


कैसे करे ऐतबार? के जमाना करेगा बावफाई,
जब अपनों से ही धोखा खाए  हुए है,


हो जायेंगे जलकर राख,
पर  ना कहेंगे,  के  अब बारिश कर,
जब अपनों के ही जलाये हुए है,


क्यों कहु? के पोंछ दो ये अश्क मेरे,
जब ये अपनों के ही तोहफे मे आये हुए है,


तन्हा कट ही जायेगा, ये सफ़र ज़िन्दगी का,
क्या मांगू अब साथ किसी का, 
जब ये वीराने अपनों के ही सजाये हुए है,






 .