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25 January, 2012

दो पन्नो से ज्यादा देखा है???

अक्सर इन्सान  कहता है,
मेरी हयात(जिंदगी) ....
"एक खुली किताब की तरह है "

क्या कभी किसी ने ,
खुली किताब को,
 दो पन्नो से ज्यादा देखा है???

जमाने का हर शक्स ,
खुद में पोशीदा नज़र आता है.

क्या तुमने,
किसी शक्स की, किताब में लिखे ,
"हर एक अफसाने का सच देखा है"'???

तन्हा शाम ......

सितम ढाने को बड़ी मुद्दत बाद ,
आज ये शाम आयी है ...

सुकून की ठंडक थी,
की दिल को जलाने, यादों के अंगारे साथ लायी है.

सुहानी धूप खिली थी आंखो मे,
ये काली घटायों को साथ लायी है,

बड़ी मुश्किल से जोड़ा है, खुदको ,
ये फिर बिखेरने आयी हैं.. 

मेरा खुश होकर जीना गवारा नहीं ,
तभी तन्हाई के घूँट पिलाने आयी है.!! 

सितम ढाने से अदावतें नहीं,,

शायद मुझे ही हुनर ऐ रफाकत नहीं,                            
हर दोस्त जुदा है, मुझसे,                                           
मुझे ही ताल्लुकातों की हिफाजत नहीं...                                      

अब राब्ते नहीं ,                                                         
वो शरारते नहीं,                                                          
दरमियाँ अह्बाबो के, बाकी वो चाहते नहीं..

वफ़ा निभाने की अब बातें  नहीं,
बाकी अब बज़्म की राते नहीं,                                   
मयस्सर हो , मोहब्बत के बदले मोहब्बत ,                                    
के ऐसी कोई रवायते नहीं,                                                              

अपनों की नवाज़िशे नहीं,                                                         
जुस्तजू(चाहत) के जुल्म बंद हो यारों का,,                               
मगर, शायद अब भी यारों को,                                                
सितम ढाने से अदावतें(नफरत)) नहीं...!!!   

हुनर ऐ रफाकत=दोस्ती का हुनर 
ताल्लुकातों= संबंधो  
 राब्ते=रिश्ते
अह्बाबो=दोस्तों
 बज़्म=महफ़िल
मयस्सर=पाना/मिलना
रवायते=रस्मे
नवाज़िशे= प्यार/दया
 जुस्तजू=चाहत
  अदावतें= नफरत

21 January, 2012

आँख भर आयी .......

बरसों पहले इक यार  को जाते देखा था,
जमाने से,

आँख मेरी भर आयी थी,
लबों को चीरकर एक चींख बाहर आयी थी,

दिल ने बड़ी गहरी चोट खायी थी, 
उस अपने को खोकर ताउम्र तड़पने की सजा मैंने पायी थी...

फिर आँखों ने देखे यूँ नज़ारे तो कई..

पर आज! 
इक अनजान को रुखसत होते देख,
 ना जाने क्यों ?
फिर आँख भर आई थी 






17 January, 2012

वो सपने देखना गुनाह था........

वो सपने देखना गुनाह था शायद,
के अब तक सजा पा रहा हूँ  ,


बहुत तलब थी, महफ़िलों की,
अब तो बस वीरानो के शौक फरमा रहा हूँ


मेरा मुक़द्दर , हुआ बरहम (नाराज) मुझसे ,
के अब तक मना रहा हूँ,

टूटे ख्वाब, शीशे की सूरत चुभे कभी आँखों में,
के अब तक खून के कतरे  बहा रहा हूँ ,

जिस्म पर गम,
 गुबार ऐ रहगुजर (रास्ते की धूल ) की तरह हुआ काबिज़,
के अब तक हटा रहा हूँ,

आग ऐ दोजख(नरक की आग) सी हुई ज़िन्दगी मेरी,
के अब तो बस कुछ हसरतों का बहाना लिए जले जा रहा हूँ.....